Sunday, March 13, 2011

सरकती रात ।

सरकती रात ।
मुकत छंद कविता ।
 (courtesy-Google images)

रात के साथ सरकती जा रही है,सारी उम्मीदें । दोनों का दामन थामकर बैठने को मन करता है । भीड़ भी लगी है यारों की । ना जाने क्यों, मैं ही तन्हा-तन्हा सा बैठा हूँ ।


ग़म-ए-घायल हूँ, हालात का मारा भी । न आया तरस, ना ख़त, ना ख़बर कहीं से फिर, झूठी  आश लगाये । ना जाने क्यों,  मैं ही तन्हा-तन्हा सा  बैठा  हूँ ।


कहते थे मर जायेंगे, मीट जायेंगे । कई वादे, कई कस्में, भूल गये शायद ।  फिर, लगाकर वफ़ा को गले । ना जाने क्यों, मैं ही  तन्हा-तन्हा सा बैठा  हूँ ।


शर्म -ओ- हया, नज़रें झुका कर प्यार जताना । लूटा तो दिया सब, जान भी, और क्या देता,वफ़ा के सिवा? ना जाने क्यों  मैं ही तन्हा-तन्हा सा  बैठा  हूँ ।


हमराही, हम-साया  भी, दामन  छुड़ाता   है  क्या  ऐसे कोई? राहें  रोशन हों,  यही चाह में दिल जलाता। ना जाने क्यों,  मैं ही  तन्हा-तन्हा सा  बैठा  हूँ ।


आता है गुस्सा, इस दिल पर मुझे । उलझता है क्यों, बेवफ़ा से ? फिर जलता है बेतहाशा ? जाम-ए-ज़हर लिए आज । ना जाने क्यों,  मैं ही तन्हा-तन्हा सा  बैठा  हूँ ।


मार्कण्ड दवे । दिनांक -१३-०३-२०११.

2 comments:

  1. रात के साथ सरकती जा रही है,सारी उम्मीदें । दोनों का दामन थामकर बैठने को मन करता है
    |मगर यह संभव नहीं, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति , बधाई

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