Thursday, March 3, 2011

लघु कहानी- `तथास्तु`


मेरी कहानीयाँ ।
`तथास्तु`
(courtesy-Google images)


" अमोघ शक्ति का संचार है तथास्तु ।
   असीम भक्ति का प्रचार है तथास्तु ।"


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तथास्तु ।

वसंत के आल्हादक और मदभरे वातावरण में, पूर्ण कला स्वरूप, देखते ही प्रेम रस जागृत करने वाली, नाज़ुक,सुंदर एक कन्या, जिसका नाम भी रुप की तरह सुंदर `पर्णसि` था । पर्णसि के पिता ओमकारनाथजी भारत के माने हुए  नामाँकित  भजनिक  थे । माता का नाम ऋचा, संस्कारी गृहिणी । ओमकारनाथजी और ऋचा की ईकलौती संतान, पर्णसि थीं ।

ओमकारनाथजी की आर्थिक स्थिति सामान्य थी, मगर अपने ईश्वर के प्रति अपार श्रद्धा के कारण, दिल के वह अत्यंत अमीर थे । ओमकारनाथजी का घर, संगीत सिखनेवाले अनेक शिष्यों से, सदा भरा-भरा रहता था । अपनी आर्थिक स्थिति सामान्य होने के बावजूद, दिल के अमीर होने के कारण, ओमकारनाथजी कभी किसी से कोई अपेक्षा कभी न रखते थे । भजनानंद परोसने के बाद, प्रेम से जो भी पुरस्कार मिलता, उसे भगवान का प्रसाद-आशीर्वाद समझ कर, सहजता से ओमकारनाथजी स्वीकारते थे । शायद इसी लिए, भगवान को मानो अपने परम भक्त ओमकारनाथजी की चिंता लगी रहती थी और आज यहाँ तो कल वहाँ, सारे भारतवर्षमें उनके भजन-संध्या के अगणित कार्यक्रम आयोजित होते रहते थे ।

पर कहावत है ना..!! सूरज हमेशा ढलने के लिए ही उगता है..!!ओमकारनाथजी की अब उम्र हो चली थीं । भजन के कार्यक्रम के लिए शारीरिक कष्ट उठाना अब मुश्किल हो  चला था । मगर अपने ईश्वर और अपने समर्थ ज्ञानी गुरु पूज्य नंदबाबा के प्रति अपार आस्था के कारण, ओमकारनाथजी कोई भी मुश्किल घड़ी में सदैव स्वस्थ रहते थे । ओमकारनाथजी अपने गुरूजी नंदबाबा के साथ सत्संग-सानिध्य कृपा पाकर सारे दुःख-दर्द से मुक्त हो जाते थे ।

गुरु पूर्णिमा के शुभ दिन  पर, प्रातःकाल में ओमकारनाथजी, अपनी पत्नी ॠचा, पर्णसि और अपने सारे शिष्यगण के साथ पूजनीय गुरु नंदबाबा के पूजनार्चन और दर्शन हेतु, गुरूजी के आश्रम में उपस्थित थे । श्री गुरु पूजा संपन्न होने के बाद, ओमकारनाथजी को उदासीन और चिंता में लिप्त पाकर, पूज्य नंदबाबा ने बड़े प्रेम और आत्मीयता से, उनके चिंतातुर होने का कारण जानना चाहा ।

ओमकारनाथजीने गुरूजी को आदर सहित कारण बताया," गुरूजी, एक अच्छे, संस्कारी परिवार में पर्णसि का रिश्ता तय हुआ है । चातुर्मास के पश्चात विवाह भी होंगें । अपने संबंध की दुहाई देकर, मेरे समधीजीने किसी भी प्रकार का दहेज़ लेने से विवेक पूर्ण ढंग से इनकार किया है । मगर फिर भी मैं कन्या का पिता हूँ ना ?  हजार हाथ वाले ईश्वर पर भरोसा कायम रखने का, आपने उपदेश दिया है, फिर भी मेरी आर्थिक विवशता के कारण, मेरा मन आज विचलित  हो  गया  है ।"

पिताजी का प्रेम देखकर, पर्णसि और माता ॠचा की आँख सजल हो गई । सब का हृदय भारी हो गया । पर्णसिने, पिताजी को आश्वासन देते हुए कहा," पिताजी, आप चिंता न करें, मुझे कुछ नहीं चाहिए । अपने परिवार के संस्कार अनुसार आप कन्या दान-दहेज़ में मुझे, सिर्फ कान की दो बाली और श्रीभगवत गीता जी का एक छोटा सा गुट्टा (लघु पुस्तक) ही  देना ।"

वैसे, पू.गुरूजी नंदबाबाने ओमकारनाथजी को सिर्फ इतना ही कहा," आपकी फ़िक्र करने वाला भगवान आपके हृदय में बिराजमान  है । आप कल सुबह  ब्रह्ममूहुर्त में, स्नानादि क्रिया के बाद आश्रम में उपस्थित रहना ।भगवान आपकी सारी मनोंकामनाएँ पूर्ण करेगा ।"

पूज्य गुरूजी के आदेश को, साक्षात ईश्वर का आदेश मानकर, शिरोधार्य करके, ओमकारनाथजी, दूसरे दिन प्रातःकाल, सूरज उगने से पहले ही, आश्रम में उपस्थित हो गये । आश्रममें आते ही ओमकारनाथजीने अपने सदगुरु पूज्य श्रीनंदबाबा को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया । गुरुजीने आशिर्वचनमें ओमकारनाथजी को सिर्फ,` तथास्तु` कहा ।

ना ओमकारनाथजी ने कुछ माँगा, ना  पू.नंदबाबाने `तथास्तु` के अलावा कुछ दिया ।

समय रहते, विवाह का दिन भी आ गया । कल पर्णसि पराए घर विदा होनेवाली थीं और आज उसके पिता के पास अपनी प्यारी बच्ची को देने के लिये `आशीर्वाद` के अलावा और कुछ न था । कल दोपहर को बारात आने वाली थी और आज यहाँ शादी के नाम पर ओमकारनाथजी के कुछ रिश्तेदार और शिष्यों की चहल-पहल के अलावा कोई बड़ी ताकझाँक न दिखाई दे रही थी ।

इतने में  मानो  सभी को सानंदाश्चर्य हुआ, दोपहर होते ही, एक विवाह योग्य कन्या को, करियावर में देने लायक सारा साज़ो सामान से भरे दो बड़े ट्रक (TRUCK) ओमकारनाथजी के घर के आंगनमें आ कर खड़े हो गये ।

क्या था  दोनों ट्रक में..!! कीमती ज़ेवर, रसोई के सभी प्रकार के बर्तन, सूटकेस, महंगी बनारसी साडीयाँ, तिजोरी, बड़ी अलमारी, पलंग, गद्दी-तकिया, और न जाने क्या-क्या...!! साथ में था मुंबई  के एक बड़े करोड़पति उद्योगपति, बुजुर्ग शेठ का पत्र ।

" पूज्य ओमकारनाथजी, आप शायद मुझे भूल गये होंगें । मेरे यहाँ, करीब पाँच साल पहले आयोजित श्रीमद भगवतकथामृत में, हम सभी भक्तों को आपने दस दिन तक, भजनामृत पान करवाया था । आपके अकिंचन व्रत के कारण, कथा समाप्ति के बाद, ना आपने कुछ पुरस्कार माँगा, ना मैंने याद करके आपको कभी पुरस्कार भेजा । मुझे दो दिन पहले ही आपकी लाडली पर्णसि के विवाह के बारे में पता चला । वृद्धावस्था के कारण, मेरा स्वास्थ्य आजकल ठीक नहीं है । ज़िंदगी का भी क्या भरोसा, आप का ऋण चुकाने का इससे अच्छा मौका मुझे कब मिलने वाला था? मैंने अत्यंत जल्दबाजी में यह तूच्छ भेंट अपनी लाडली पर्णसि के लिए भेजी है, जिसे स्वीकार कर के मुझे ऋण मुक्त होने का अवसर दिजीएगा । आपका सदैव ऋणी........शिष्य ।"

यह पत्र पढ़कर ओमकारनाथजी के नयन आंसुओं से छलक उठे । उनको करोड़पति शेठ के नाम की जगह, भक्त नरसिंह मेहता की कुंवरबाई का करियावर समय पर पहूँचानेवाले, साक्षात शामळ शाह शेठ (श्री कृष्ण) के नाम का आभास हुआ । उपस्थित सभी आप्तजन, ईश्वर की प्रत्यक्ष  उपस्थिति  महसूस करने लगे ।

आप को जानकर हैरानी एवं आश्चर्य होगा कि, करियावर के साज़ो सामान में, कान के लिये दो सुंदर बाली और श्रीभगवत गीता जी का एक छोटा सा गुट्टा (लघु पुस्तक) भी शामिल था ।

स्वाभाविक सवाल यह है कि, क्या `तथास्तु` इतना असरदार हो सकता है?
शायद सच्चे संत के हृदय से निकला हुआ `तथास्तु` अवश्य असरदार होता है ।

अस्तु ।

मार्कण्ड दवे, दिनांकः- ०३ -०३ -२०११.

3 comments:

  1. सच है "जैसी हो भवतव्यता वैसी मिले सहाय"


    आपका हिन्दी के प्रति प्रेम सुखद लगा... कृपया एग्रीगेटरों पर अपना ब्लाग अवश्य रजिस्टर करवा दें जिससे आने वाली नयी पोस्टों की जानकारी सब को मिल सके।

    दूसरी बात सेटिंग मे जाकर शब्द पुष्टिकरण का आप्शन "नहीं" पर कर दें, इससे लोगों को कमेन्ट करने मे आसानी होगी।

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  2. सौभाग्य मेरा की इतनी अच्छी कथा को पस्दने का मौका मिला..
    इश्वर सब देखता है और सबके लिए उसने सोच रखा है..

    बधाई

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