अश्क समंदर ।
(छंद मुक्त कविता)
(courtesy-Google images)
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न जाने किसके अश्क बहे इतने,
समंदर में कैसी ये बाढ़ है आई ?
न जाने किसने भरी दर्द से आह ऐसी ?
आज कश्ती मेरी ज़ोर से डगमगाई ।
न जाने कौन से ग़म में घटा ये बिखरी,
बरसे बिना ही बूंद - बूंद को वह तरसी ?
न जाने ये कौन रोता है, क्यों बेतहासा ?
सागर को भी देखो उस पर तरस है आई ।
न जाने सहमे-सहमे से क्यों लगते है तूफ़ान,
ज़ोर से उनकी किसने आवाज़ क्यों दबाई ?
न जाने क्यों चमन की आँखें ऐसी ड़बडबाई?
अजीब सी आज फिज़ामें भी ग़मगीनी है छाई ।
न जाने चाँद कहाँ - क्यों छुप गया बादलों में?
गज़ब की लाली उसकी पिघलने को आई ।
न जाने हुआ क्या दामन में चमकते ये तारे,
शर्म के मारे उन्होंने भी है पलकें झपझपाई ।
न जाने क्यों चीख रहा सुना ये सन्नाटा?
अंधियारी रोती रात भी धनधोर सिसकाई ।
न जाने किस शख़्स की आहट दबे पाँव आई?
बे-जान यह काली सी सड़क भी लड़खडाई ।
न जाने कहाँ है मेरा आख़िरी आशियाना,
मुझे दर्द भरी सदा रोज़ कहाँ से है आती ?
न डर है मुझे अब, न अरमान कोई बाकी,
मिलन की घड़ी शायद अब नज़दीक है आई ।
मार्कण्ड दवे । दिनांक- १६ -०३ -२०११.
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