Wednesday, March 16, 2011

अश्क समंदर ।

अश्क समंदर ।
(छंद मुक्त कविता)

(courtesy-Google images)

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न  जाने  किसके अश्क  बहे  इतने,
समंदर में  कैसी  ये  बाढ़  है   आई ?
न जाने किसने भरी दर्द से आह ऐसी ?
आज कश्ती  मेरी  ज़ोर से डगमगाई ।

न  जाने  कौन  से  ग़म में  घटा ये बिखरी,
बरसे  बिना  ही  बूंद - बूंद को  वह  तरसी ?
न  जाने  ये कौन  रोता  है,  क्यों  बेतहासा ?
 सागर को  भी देखो  उस पर  तरस है आई ।

न जाने सहमे-सहमे से क्यों लगते है तूफ़ान,
 ज़ोर से  उनकी  किसने  आवाज़  क्यों दबाई ?
न जाने क्यों  चमन की आँखें ऐसी  ड़बडबाई?
अजीब सी आज फिज़ामें  भी ग़मगीनी है छाई ।

न जाने  चाँद  कहाँ - क्यों छुप गया बादलों में?
गज़ब  की लाली  उसकी  पिघलने को आई ।
न  जाने  हुआ क्या  दामन में चमकते ये तारे,
शर्म के  मारे  उन्होंने भी है पलकें झपझपाई ।

न जाने क्यों चीख रहा  सुना  ये सन्नाटा?
अंधियारी रोती रात भी  धनधोर  सिसकाई ।
न जाने किस शख़्स की आहट दबे पाँव आई?
बे-जान यह काली सी  सड़क भी लड़खडाई ।

न  जाने कहाँ  है मेरा आख़िरी आशियाना,
मुझे  दर्द भरी  सदा रोज़  कहाँ  से  है आती ?
न  डर है मुझे अब, न अरमान कोई  बाकी,
मिलन की  घड़ी शायद अब नज़दीक है आई ।

मार्कण्ड दवे । दिनांक- १६ -०३ -२०११.  

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