(सौजन्य=गुगल इमेज)
" दो पहियों की यह साइकिल का,कैसा ग़जब है खेल?
पेट ख़ाली, साँस फूला है,जीवन कैसा अजीब बे-मेल..!!"
पेट ख़ाली, साँस फूला है,जीवन कैसा अजीब बे-मेल..!!"
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बाइसिकिल विरुद्ध कार (भाग -१)
प्यारे दोस्तों,हमारे शहर के चौराहे पर रेड सिग्नल के कारण,करीब-करीब सभी वाहन एक दूसरे के पास-पास खड़े हुए थे । अचानक भीड़ के एक कोने में से झगड़े की आवाज़ सुनाई दी । मानव सहज कौतूहल वश होकर मैं भी यह तमाशा देखने वहाँ रुक गया ।
मैंने देखा, भारीभरकम भीड़ के बीच एक साइकिल सवार, उसके पास में खड़ी हुई ब्राँड न्यू कार पर अपना हाथ रखकर खड़ा था और साइकिल का पेड़ल कार के साथ लग जाने की वजह से कार के दरवाज़े पर कुछ हल्की सी खरोंचे आ गई थीं । अब नयी नवल दुल्हन जैसी गाड़ी को कोई फ़ालतू साइकिलिस्ट टच करें, तो कौन गुस्सा न हो ? और क्या..!! बस इसी बात पर कार और साइकिलवाले के बीच झगड़ा शुरु हो गया । पहले गाली गलोच और फिर मार-पीट तक की नौबत आ गई ।
हालाँकि, ग्रीन सिग्नल के होते ही, लाइन में पीछे खड़े वाहन के अविरत हॉर्न बजाने के कारण कार का मालिक और वह साइकिलसवार बडबडाते हुए अपने-अपने रास्ते चल दिए ।
आज यह वाक़या याद करने का कारण? सरल है..!! उस दिन, वह कार चालकने, साइकिल सवार को," यु स्टूपिड, स्ट्रीट डॉग?" की गाली दी थीं, ये बात मेरे मन में आजतक अंकित है । वैसे, मैं आजतक ये समझ नहीं पाया, कार चालकने साइकिलवाले को, `स्ट्रीट डॉग` क्यों कहा था..!! बहुत चिंतन के बाद मुझे `गली के कुत्ते` और साइकिलसवार में कुछ साम्य ज़रुर महसूस हुआ ।
गली के आवारा कुत्ते भी, अच्छी वाली नयी कार को देखते ही, कार और कार मालिक के प्रति द्वेषभाव से, कुछ कर गुजरने के लिए, अप्रतिम साहस, अभिमान, शोर्य, तिरस्कार जैसे, कई भाव एक साथ चेहरे पर धारण करके, कार के आगे - पीछे सर्वे करने के पश्चात, कार के किसी एक पहिए को, मानो शुद्ध गंगा-जल से स्नान करा रहा हो, ऐसे लघुशंका का शुभ कार्य, अत्यंत जल्दबाज़ी में निपटाकर, विजयी अदा के साथ, `कॅटवोक` करते हुए अपने कूल्हों को झूलाता हुआ, कुत्ता अपनी कुतिया को साथ लेकर चल देता है ।
वैसे, आजतक किसी `कार` वाले `बेकार` इन्सान ने, कुत्ते को ` यु स्टूपीड, स्ट्रीट साइकिलिस्ट..!!` जैसी गाली शायद ही प्रदान की हो..!!
मैं सोचता हूँ, क्या उस साइकिलसवार को `स्ट्रीट डॉग` का उपनाम देने वाले कारचालकने खुद अपनी छोटी उम्र में कभी भी तीन पहिए की और पाठशाला जाते वक़्त दो पहिए की साइकिल कभी चलाई न होगी?
ग़रीब को या अमीर, सेकन्ड हेन्ड हो या नयी, तीन पहिए की हो या दो पहिए की, पर बचपन में साइकिल सीखने का उत्साह और उससे भी अधिक छोटे बच्चों कों कहीं चोट लग न जाए, यही फ़िक्र में हमारी साइकिल के पीछे, सरपट दौड लगाते हुए हमारे बड़े बुझुर्ग की गर्मजोशी, शायद ही कोई आजतक भूल पाया हो..!!
मुझे याद है, सन- १९६०-७० तक, साइकिल रिपेयरिंगवाले की दुकान में, छोटे-बड़े सब को, प्रति घंटे के हिसाब से, दस पैसे से लेकर एक रुपये तक किराया वसूल करके, साइकिल भाड़े पर मिलती थीं । (शायद अभी भी मिलती होगी?)
ऐसी ही, भाडे की साइकिल लेकर, मैंने साइकिल चलाना सीखा था। हाँ, ये बात ओर है की, साइकिल का हेन्डल कस कर पकड़ने के साथ-साथ अपना बैलेंस संभाले रखने की जद्दोजहद में, साइकिल का पेडल चलाना मैं अक्सर भूल जाता था..!! (नन्हीं सी जान क्या-क्या याद रखें?) परिणाम स्वरूप बगैर पेडल चलाये, साइकिल एकदम धीमा हो कर, कहीं भी खड़ी रह जाती और मैं, ध..ड़ा..म से, भूमि शरण हो जाता था । कभी-कभी तो मुझे छोटी-मोटी चोट भी लग जाती थीं ।
रोज़-रोज़ मेरी ऐसी चोट-(दार) हालत देखकर एक दिन, मेरे चचेरे बड़े भैया ने मुझे सही तरीके से साइकिल सिखाने का बीड़ा उठाया और साथ में यह प्रण भी लिया, "साइकिल सिखाते-सिखाते चाहें प्राण (मेरे)भी चले जाएं पर, वचन (उसका) न जाए..!!"
साइकिल सिखाने के लिए, किसी समर्थ महाज्ञानी गुरु की भाँति बड़े भैया ने मेरे लिए एक सरल उपाय सोचा..!!
साइकिल चलाते समय, साइकिल के हेन्डल के बैलेंस पर, मेरा ध्यान आराम के साथ लगा सकूँ और मुझे साइकिल का पेडल लगाने की भी जरुरत न महसूस हो..!! यही सोचकर, भाई मुझे साइकिल के साथ, हमारे गाँव के तालाब के ऊँचे टीले की सब से उंची चोटी पर ले गया । उस टीले पर चढ़कर भाई ने साइकिल पकड़कर, मुझे साइकिल पर बिठा दिया । फिर साइकिल को ज़ोर का धक्का देकर , मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया ।
शुरू में थोड़ी दूर तक तो, मैं पैडल उद्यम मुक्ति का आनंद, बड़े चाव से लेता रहा, मगर आधी ढलान तक साइकिल के रगड़ने के बाद, साइकिल ने महत्तम, तीव्र गति पकड़ ली, इतना ही नहीं, तीव्र गति के कारण साइकिल का हेन्डल दायें-बायें, ज़ोर ज़ोर से हिलने-डुलने लगा..!!
अति गति की दुर्गति में, मानो ये सत्यानाशी भी कम पड रही हो, टीले की ढलान के संकडे रास्ते पर, मेरी डामाडोल होती साइकिल के सामने, सिर पर, पानी से भरे बड़े-बड़े मटके उठाकर आती हुई, कुछ पनिहारीओं को, मैंने देखा..!!
मेरी छठी इन्द्रियने तुरंत मुझे सचेत कर दिया की, अब अकस्मात होना तय है, सिर्फ यही देखना बाकी रह जायेगा की, हम में से किस को, कितनी चोटें आई है..!! ये भी पता था की, अगर ग़लती से भी, उन पनिहारीओं को कुछ हुआ, तो मुझे साइकिल के साथ गिरने के बाद भी, उन महिलाओं के हस्तप्रसाद से, अनगिनत अतिरिक्त चोटें भी लगने वाली थीं..!!
इतने में ही, अपनी बातों में मशरूफ उन पानी-(दार) पनिहारीओं ने दूर से, साइकिल पर, उनकी ओर, मुझे सरपट आते देख लिया । किसी अनहोनी से किनारा करने के लिए, सारी महिलाएं, संकडे रास्ते की दायीं ओर, तपाक से खिसक गई..!! पर पता नहीं क्यों, मेरे न चाहते हुए भी, मेरी साइकिल का हेन्डल भी, उन पनिहारीओं की तरफ मूड ने लगा..!! फिर से, अपनी ही ओर साइकिल को सरपट आती देखकर, अब कुछ महिलाएं अपना मटका जमीन पर पटककर, गभराहट से, बांयी ओर भागी..!! फिर मेरी इच्छा विरुद्ध, साइकिल का हेन्डल बांयी ओर मुड़ ने लगा..!! `ये क्या हो रहा है`, मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा था?
हालाँकि सारी पनिहारीयाँ अब तक समझ चुकी थीं की, अब क्या होनेवाला है..!! `जब भीड़ पडी भक्तन पर तब`न्याय अनुसार, मन ही मन, मैंने भोले शंकर को याद किया । अगर, थोड़ी देर के लिए ही सही, उनकी तीसरी आँख, वो मुझे प्रदान कर सकें तो, उसे मेरी गर्दन के पीछे चिपकाकर, मेरे पीछे मैं देख पाऊँ..!! मुझे, बीच ढलान पर,ऐसी कठिन परिस्थिति में फंसानेवाले मेरे बडे भैया को क्रोधाग्नि से शायद भस्म भी कर दूँ..!!
खैर, मेरी साइकिल ने अब तक तो, अधिकतम तीव्र गति पकड़ ली थीं । आखिरी में भोलेबाबा का नाम स्मरण करके, मैनें मेरी दोनों आँखें ही मूंद लीं..!! तुरंत सारी समस्या ही जैसे खत्म हो गई? मुझे अवर्णनीय परम सुख का अनुभव होने लगा..!! ऐसा लगा, जैसे की मैं एक आज़ाद पंछी हूँ, जो आसमान में अपने पंख पसारे उड़ रहा है, विशाल गगन की ठंडी-ठंडी हवा का लुत्फ़, मुफ़्त में उठा रहा है? पर ये आनंद ज्यादा देर तक टिक न पाया । विशाल गगन से पृथ्वी पर, उन महिलाओं के बीच, साइकिल के साथ, मैं कब जा गिरा? उन सबको कहां-कहां लगा? उन्होंने मुझे कौन कौन सी गालीयां दीं? ये सब कुछ भी मुझे याद न रहा...!!
करीब पंद्रह मिनट बाद, जब मुझे होश आया तब, कुछ फूटे हुए मटकों के पानी से, कुछ मारे शर्म से, भींग कर, मैं सचमुच पानी-पानी हो गया था..!! मेरा शर्ट और चड्डी दोनों फटे हुए थे..!!
मुझे साइकिल सिखाने का प्रण लेनेवाला मेरा गुरु, मेरा बड़ा भाई, सब सलामत होने का आभास होते ही, किसी कोने के अज्ञात स्थान से, आसपास नज़र धुमाता हुआ, बाहर निकल आया और साइकिल के साथ, उसने मुझे भी सँभालने की नाकाम कोशिश की । मैंने उसे खूब ड़ांटा और हम दोनों भाईओं को घर पहुँचते ही जमकर ड़ांट पड़ी ।
खैर, उसके बाद करीब पंद्रह दिन की अवधि में ही,जैसे तैसे, मैंने साइकल तो पुरी तरह सीख ली, मगर इन पंद्रह दिनो में उसी तालाब के टीले पर, हमने न जाने, कितनी पनिहारीओं के मटके फोडे, कितने लोगों की लधुशंका-गुरुशंका समाधि को भंग कराके, उनके `कुदरती इरादों` पर, उन्हीं के टिन पॉट (डिब्बे) का पानी फेर दिया ? आज ये सारी बातें, न तो मुझे याद है, ना मैं उसे याद रखना चाहूँगा..!!
हाँ, एक बात मुझे आज भी याद है, साइकिल सीखने के बाद हमारे `चिल्ड्रेन समाज` में मेरा नाम और मान उसी तालाब के टीले की, ऊँची चोटी समान ऊँचा हो गया..!!
बहुत दुःख होता है, आजकल, जब मैं कार चला कर कहीं आता-जाता हूँ, मुझे, बचपन का साइकिल चलाने वाला वह रोमांच, जीवन में फिर कभी महसूस नहीं हुआ ।
ऐसी ही, भाडे की साइकिल लेकर, मैंने साइकिल चलाना सीखा था। हाँ, ये बात ओर है की, साइकिल का हेन्डल कस कर पकड़ने के साथ-साथ अपना बैलेंस संभाले रखने की जद्दोजहद में, साइकिल का पेडल चलाना मैं अक्सर भूल जाता था..!! (नन्हीं सी जान क्या-क्या याद रखें?) परिणाम स्वरूप बगैर पेडल चलाये, साइकिल एकदम धीमा हो कर, कहीं भी खड़ी रह जाती और मैं, ध..ड़ा..म से, भूमि शरण हो जाता था । कभी-कभी तो मुझे छोटी-मोटी चोट भी लग जाती थीं ।
रोज़-रोज़ मेरी ऐसी चोट-(दार) हालत देखकर एक दिन, मेरे चचेरे बड़े भैया ने मुझे सही तरीके से साइकिल सिखाने का बीड़ा उठाया और साथ में यह प्रण भी लिया, "साइकिल सिखाते-सिखाते चाहें प्राण (मेरे)भी चले जाएं पर, वचन (उसका) न जाए..!!"
साइकिल सिखाने के लिए, किसी समर्थ महाज्ञानी गुरु की भाँति बड़े भैया ने मेरे लिए एक सरल उपाय सोचा..!!
साइकिल चलाते समय, साइकिल के हेन्डल के बैलेंस पर, मेरा ध्यान आराम के साथ लगा सकूँ और मुझे साइकिल का पेडल लगाने की भी जरुरत न महसूस हो..!! यही सोचकर, भाई मुझे साइकिल के साथ, हमारे गाँव के तालाब के ऊँचे टीले की सब से उंची चोटी पर ले गया । उस टीले पर चढ़कर भाई ने साइकिल पकड़कर, मुझे साइकिल पर बिठा दिया । फिर साइकिल को ज़ोर का धक्का देकर , मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया ।
शुरू में थोड़ी दूर तक तो, मैं पैडल उद्यम मुक्ति का आनंद, बड़े चाव से लेता रहा, मगर आधी ढलान तक साइकिल के रगड़ने के बाद, साइकिल ने महत्तम, तीव्र गति पकड़ ली, इतना ही नहीं, तीव्र गति के कारण साइकिल का हेन्डल दायें-बायें, ज़ोर ज़ोर से हिलने-डुलने लगा..!!
अति गति की दुर्गति में, मानो ये सत्यानाशी भी कम पड रही हो, टीले की ढलान के संकडे रास्ते पर, मेरी डामाडोल होती साइकिल के सामने, सिर पर, पानी से भरे बड़े-बड़े मटके उठाकर आती हुई, कुछ पनिहारीओं को, मैंने देखा..!!
मेरी छठी इन्द्रियने तुरंत मुझे सचेत कर दिया की, अब अकस्मात होना तय है, सिर्फ यही देखना बाकी रह जायेगा की, हम में से किस को, कितनी चोटें आई है..!! ये भी पता था की, अगर ग़लती से भी, उन पनिहारीओं को कुछ हुआ, तो मुझे साइकिल के साथ गिरने के बाद भी, उन महिलाओं के हस्तप्रसाद से, अनगिनत अतिरिक्त चोटें भी लगने वाली थीं..!!
इतने में ही, अपनी बातों में मशरूफ उन पानी-(दार) पनिहारीओं ने दूर से, साइकिल पर, उनकी ओर, मुझे सरपट आते देख लिया । किसी अनहोनी से किनारा करने के लिए, सारी महिलाएं, संकडे रास्ते की दायीं ओर, तपाक से खिसक गई..!! पर पता नहीं क्यों, मेरे न चाहते हुए भी, मेरी साइकिल का हेन्डल भी, उन पनिहारीओं की तरफ मूड ने लगा..!! फिर से, अपनी ही ओर साइकिल को सरपट आती देखकर, अब कुछ महिलाएं अपना मटका जमीन पर पटककर, गभराहट से, बांयी ओर भागी..!! फिर मेरी इच्छा विरुद्ध, साइकिल का हेन्डल बांयी ओर मुड़ ने लगा..!! `ये क्या हो रहा है`, मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा था?
हालाँकि सारी पनिहारीयाँ अब तक समझ चुकी थीं की, अब क्या होनेवाला है..!! `जब भीड़ पडी भक्तन पर तब`न्याय अनुसार, मन ही मन, मैंने भोले शंकर को याद किया । अगर, थोड़ी देर के लिए ही सही, उनकी तीसरी आँख, वो मुझे प्रदान कर सकें तो, उसे मेरी गर्दन के पीछे चिपकाकर, मेरे पीछे मैं देख पाऊँ..!! मुझे, बीच ढलान पर,ऐसी कठिन परिस्थिति में फंसानेवाले मेरे बडे भैया को क्रोधाग्नि से शायद भस्म भी कर दूँ..!!
खैर, मेरी साइकिल ने अब तक तो, अधिकतम तीव्र गति पकड़ ली थीं । आखिरी में भोलेबाबा का नाम स्मरण करके, मैनें मेरी दोनों आँखें ही मूंद लीं..!! तुरंत सारी समस्या ही जैसे खत्म हो गई? मुझे अवर्णनीय परम सुख का अनुभव होने लगा..!! ऐसा लगा, जैसे की मैं एक आज़ाद पंछी हूँ, जो आसमान में अपने पंख पसारे उड़ रहा है, विशाल गगन की ठंडी-ठंडी हवा का लुत्फ़, मुफ़्त में उठा रहा है? पर ये आनंद ज्यादा देर तक टिक न पाया । विशाल गगन से पृथ्वी पर, उन महिलाओं के बीच, साइकिल के साथ, मैं कब जा गिरा? उन सबको कहां-कहां लगा? उन्होंने मुझे कौन कौन सी गालीयां दीं? ये सब कुछ भी मुझे याद न रहा...!!
करीब पंद्रह मिनट बाद, जब मुझे होश आया तब, कुछ फूटे हुए मटकों के पानी से, कुछ मारे शर्म से, भींग कर, मैं सचमुच पानी-पानी हो गया था..!! मेरा शर्ट और चड्डी दोनों फटे हुए थे..!!
मुझे साइकिल सिखाने का प्रण लेनेवाला मेरा गुरु, मेरा बड़ा भाई, सब सलामत होने का आभास होते ही, किसी कोने के अज्ञात स्थान से, आसपास नज़र धुमाता हुआ, बाहर निकल आया और साइकिल के साथ, उसने मुझे भी सँभालने की नाकाम कोशिश की । मैंने उसे खूब ड़ांटा और हम दोनों भाईओं को घर पहुँचते ही जमकर ड़ांट पड़ी ।
खैर, उसके बाद करीब पंद्रह दिन की अवधि में ही,जैसे तैसे, मैंने साइकल तो पुरी तरह सीख ली, मगर इन पंद्रह दिनो में उसी तालाब के टीले पर, हमने न जाने, कितनी पनिहारीओं के मटके फोडे, कितने लोगों की लधुशंका-गुरुशंका समाधि को भंग कराके, उनके `कुदरती इरादों` पर, उन्हीं के टिन पॉट (डिब्बे) का पानी फेर दिया ? आज ये सारी बातें, न तो मुझे याद है, ना मैं उसे याद रखना चाहूँगा..!!
हाँ, एक बात मुझे आज भी याद है, साइकिल सीखने के बाद हमारे `चिल्ड्रेन समाज` में मेरा नाम और मान उसी तालाब के टीले की, ऊँची चोटी समान ऊँचा हो गया..!!
बहुत दुःख होता है, आजकल, जब मैं कार चला कर कहीं आता-जाता हूँ, मुझे, बचपन का साइकिल चलाने वाला वह रोमांच, जीवन में फिर कभी महसूस नहीं हुआ ।
बाइसिकिल विरुद्ध कार (भाग -२)
दोस्तों, शायद सन- १९७५ तक, लोग अपनी साइकिल को अपनी जान (पत्नी?) से भी ज्यादा प्यार करते थे..!! हमारे एक कंजुस पड़ोसी थे, जो की फ़र्स्ट फ्लॉर पर रहते थे । उनकी नयी खरीदी हुई साइकिल को, हम ऐसे अनाडी बच्चें नुकसान न कर दें या, कोई उसे चोरी न करें, इसलिए रोज़ रात को पड़ोसी घर लौटते ही, साइकिल को अपने दोनों हाथों से सिर पर उठाकर, फ़र्स्ट फ्लॉर पर, अपने घर में ले जाते थे । ये नज़ारा देखकर हम सारे बच्चें, हैरान हो जाते थें और सोचते थे की, गनीमत है की, उन्हों ने स्कूटर,बाईक या कार नहीं खरीदी, वर्ना उसका वह क्या करते?
हमारे `चिल्ड्रेन समाज` के सभी बच्चें, उनकी साइकिल चोरी होने की मन्नतें मानते थे । ऐसे में, जैसे हमारी भगवान ने सुन ली हो, एक दिन उनकी साइकिल सचमुच चोरी हो गई और चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए, उनके और मेरे बड़े भाई के साथ मैं भी थाने गया था । मुझे आज भी याद है, उस वक़्त पुलिस थाने में एक बोर्ड पर साइकिल चोरों के ढेर सारे फोटो चिपकाए, देखकर मुझे बहुत हैरानी एवं आश्चर्य भी हुआ था..!!
आजकल साइकिल ग़रीबों की रोजीरोटी कमाने का एक मात्र साधन होकर रह गया है,चाहे वो चाकू छुरीयाँ तेज़ करनेवाला हो,या साबून-अगरबत्ती-दूध-अखबार बेचने वाला छोटा व्यापारी हो..!! अब तो बचपन में रोमांच जगाने वाले सर्कस भी विलुप्त होने के कगार पर है,वर्ना उसमें बड़ी लंबी-बौनी,ऊँची-नीची साइकिल चलाते जोकर-मसखरों को देखने का आनंद,बचपन में कुछ अलग ही होता था । और तो और,, अब न तो ड़ाकिये साइकिल पर आते हैं, ना ही पुलिस हवालदार..!! इन सब को, पेट्रोल से तेज़ दौड़ते-भागते, वाहन आज उपलब्ध होने के बावजूद सरकारी कामकाज मानो बहुत धीमा पड़ गया है?
सन-१९७२ की, निर्माता,निर्देशक,लेखक,अभिनेता मनोज कुमार और नंदा-जया भादुरी (बच्चन) की ब्लॉक बस्टर हीट फिल्म - `शोर` में अपने बेटे की खोइ हुई वाचा का इलाज कराने के लिए, कुछ रुपये जुटाने हेतु, मनोज कुमार अविरत,रात-दिन, सार्वजनिक तौर पर, साइकिल चलाने का बीड़ा उठाते हैं । (उस फिल्म का `एक प्यार का नग्मा है` गाना बहुत लोकप्रिय हुआ था ।) हमारे गाँव के मेले में भी ग़रीब साइकिलवीर अपना पेट पालने के लिए,ऐसे ही अपना हुनर दिखाते थे और कई दिनों तक साइकिल पर ही नहाना-धोना,खाना-पीना जैसी दैनिक क्रियाएं करते थे ।
जब फिल्मों की ही बात चली है तो, साल ५०-६० की फिल्मों में हीरोइन-हीरो को प्यार में डूबने से पहले, एक दूसरे के साथ अपनी-अपनी साइकिल टकराकर सब से पहले तक़रार करना अति आवश्यक होता था । झगड़ा ज्यादा होने पर, कई फिल्मों में तो हीरो या हीरोइन एक दूसरे की साइकिल को पंचर कर देते, या फिर टायर से हवा निकाल देते थे और बाद में उनको सताने के लिए अंटसंट कोई भी गीत गा लेते थे..!!
पंचर से मुझे याद आया, सच बताएगा? क्या आपको अपने बाईक-कार का पंचर करना, उसमें हवा भरना, उसका पहिया बदलना आता है? नहीं ना..!!
आपको अपने वाहन के साथ ऐसा कुछ ग़जब होने पर मेकैनिक को बुलाना पड़ता होगा, पर साइकिल के अपार महिमा के दिनों में, हर इतवार के दिन, हमारे बड़े भैया, साइकिल के करीब सारे पुर्जे खोलकर साफ-सफाई-ऑयलिंग-ग्रिसिंग, किया करते थे, पंचर भी खुद बनाते थे, घर में एक छोटा सा पंप भी होता था, जिससे साइकिल में रोज़ सुबह हवा भरते थे ।
पहले साइकिल एक दूसरे के साथ टकराने पर, ज्यादा से ज्यादा कुछ छोटी-मोटी चोटें और फैक्चर होने का भय रहता था । आजकल, ९०-१०० कि.मी. प्रति घंटे की रफ़्तार से, बाईक या कार का अकस्मात होने पर, जान गँवाने का भय सताता है ।
पहले साइकिल चलाना सादगी का और शाश्वत तंदुरस्ती का प्रतीक माना जाता था, जिसके विरुद्ध, आज के दिनों, कार चलाने वालों के घर में चोरी छिपे,एक ही जगह पर खड़ी रहने वाली और पेडल की संख्या गिनने वाली साइकिल के ज़रिए शारीरिक व्यायाम करने का चलन बढ़ रहा है । वैसे शारीरिक व्यायाम के उद्देश्य से ही सही, कोई अमीर इन्सान अगर कहीं साइकिल पर घूमता नज़र आ जाए तो, रुपये-पैसों से बर्बाद हो जाने की आशंका से, उसके बेटे-बेटी के विवाह के लिए, अच्छे रिश्ते आना भी बंद हो जाएं, इतना सारा आडंबर आजकल समाज में फैल गया है..!!
एक ही स्कूटर या बाईक पर `ट्रबल सवारी` द्वारा, सारे खानदान का बोज़ उठाए हुए, साहसिक `ट्रबल सवारीओं` की आवा-जाही देखना आम सी बात हो गई है । पर परिवार में तीन-चार साइकिल का होना जैसे सारे परिवार को शर्मसार करने वाली बात मानी जाती है?
सन-१९६० के दशक में, ऐसा नहीं था । स्कूटर और बाईक रास्ते पर बहुत कम ही दिखते थे, ऐसे में `डबल सवारी` का आनंद सिर्फ साइकिल के डंडे पर बैठ कर ही लिया जाता था ।
ज़रा कल्पना कीजिए, साइकिल के आगे, डंडे पर नयी नवल पत्नी/प्रेमिका को बिठा कर आप कहीं जा रहे हैं, आगे बैठी हुई पत्नी/प्रेमिका का `बारबार लगातार` मुलायम सम्पर्क आपके तन बदन में रोमांचक कंपन पैदा कर रहा है, फिर गेशु-ए-यार से, चंपा-चमेली के तेल की मंद-मंद नशीली ख़ुशबू आप की नासिका में प्रवेश कर, आपके हृदय में मानो सितार बजा रही है..!! हा..य, हा..य, हा..आ..य..!! क्या समाँ होता था..!! देखिए, झूठ मत बोलना..!! ऐसी कल्पना भर से,आप के मन में, अभी गुदगुदी शुरु हो रही है ना? तो फिर?
मैं तो सच्चे दिल से मानता हूँ, उस वक़्त सस्ती साइकिल पर बैठी पत्नी/प्रेमिका को जितना भरोसा अपने जानु प्रीतम पर था, आजकल उनको, महँगी कार में, पति/प्रीतम के बगल में बैठकर भी नहीं आता होगा..!! साइकिल का उपयोग कम होने की वजह से हमारे जीवन में से सारा रोमांच ही चला गया और इसीलिए शायद आजकल तलाक भी ज्यादा हो रहे हैं?
सन-१९७५ तक, साइकिल पर `डबल सवारी` घूमना क़ानूनन जुर्म माना जाता था,अतः ऐसे `डबल सवारी`करनेवाले सवार, दूर से ही किसी पुलिसवाले को देख लेते तो, साइकिल के डंडे पर बैठी पत्नी/प्रेमिका/मित्र कोई भी हो, उसे साइकिल से नीचे उतार कर, पुलिसवाले को पार (क्रॉस) करके, फिर से उन्हें साइकिल के डंडे पर या पीछे कैरियर पर बिठाना पड़ता था । इसी प्रकार, रात को, साइकिल के पीछे लाल रंग का रिफ्लेक्टर और साइकिल के आगे डायनेमो बत्ती (इलेक्ट्रिक लाईट)या मिट्टी के तेल का लैंप लगाकर ही, साइकिल चलाने का कानून भी अमल में था ।
साइकिल के डंडे पर किसी को बिठा कार घुमाने का सुख सिर्फ पुरुषों के भाग्य में लिखा होगा, इसीलिए साड़ी धारण करनेवाली महिलाओं के लिए, कंपनी वालों ने, आगे बगैर डंडे की, लॅडिज़ साइकिल का निर्माण करना शुरु कर दिया..!! अब महिलाएं, लैडिज़ साइकिल चला तो लेती थीं,मगर उसे स्टैंड करने के लिए, अक्सर पुरुषों की सहायता लेनी पड़ती थी, अब ऐसे में कोई पुरुष को उस साइकिलवाली महिला के आगे-पीछे बैठने की चाहत होती होगी पर, बेचारा क्या करें..!! वहाँ आगे डंडा नहीं और पीछे कैरियर पर बैठने में पक्का अहंकार आड़े आता होगा..!!
हमारे गाँव में एक बंदे ने दूसरी जाति में प्रेम विवाह किया और फिर साइकिल के डंडे पर अपनी पत्नी को बिठाकर रोज़ हमारे घर के सामने से बड़े फख़्र के साथ, निकलने लगे । ये सब देखकर कहीं हमारे संस्कार भी बदल न जाए,ऐसा सोचकर, उसी वक़्त मेरे पिताजी हमें अक्सर घर में बुला लेते थे । बाद में उस बंदे का बेटा जब दो साल का हुआ, तब उसे भी साइकिल के हेन्डल पर लोहे के जालीदार पिंजरें में बिठाकर, साइकिल पर ढाई (२=१/२) सवारी के साथ, उनको आते-जाते मैं ने अक्सर देखा था । ये सब देखकर ईर्ष्या के मारे, उसी वक़्त मैंने भी मन ही मन तय कर लिया था की, मैं भी एक दिन मेरी पत्नी और बच्चों को मेरी साइकल पर बिठाकर इस बंदे के सामने से गुजरुंगा और वह देखता रह जाएगा.!! मगर अब तो मैं चाहूँ तब भी, मेरी पत्नी और बच्चों को, मेरी कार के बॉनेट (ढक्कन) पर बैठने का सुझाव नहीं दे सकता..!! कहेंगे, बुढ्ढा सठिया गया है?
आप को पता है? आज देश में बाईक-कार के बढते चलन के बावजूद हमारे देश के लिए, यह गर्व की बात है की, भारत आज भी साइकिल उत्पादन में, चीन के बाद सारे विश्व में, दूसरे स्थान पर है । हमारे देश की कार कंपनियाँ, जैसे, मारुति,टाटा,हुन्डाई,महिंद्रा, जनरल मोटर्स, टॉयोटा, हॉन्डा, फॉर्ड, फीयेट, स्कॉडा, हिंदुस्तान मोटर्स, फॉर्स मोटर्स, मर्सिडिझ बेंन्ज़, बी.एम.डबल्यू,वी.डबल्यू, औडी, आई.सी.एम.एल.(रिनो), निस्सान वगैरह के मुकाबले में, देश में साइकिल का उत्पादन दश गुना ज्यादा होता है ।
दोस्तों, शायद सन- १९७५ तक, लोग अपनी साइकिल को अपनी जान (पत्नी?) से भी ज्यादा प्यार करते थे..!! हमारे एक कंजुस पड़ोसी थे, जो की फ़र्स्ट फ्लॉर पर रहते थे । उनकी नयी खरीदी हुई साइकिल को, हम ऐसे अनाडी बच्चें नुकसान न कर दें या, कोई उसे चोरी न करें, इसलिए रोज़ रात को पड़ोसी घर लौटते ही, साइकिल को अपने दोनों हाथों से सिर पर उठाकर, फ़र्स्ट फ्लॉर पर, अपने घर में ले जाते थे । ये नज़ारा देखकर हम सारे बच्चें, हैरान हो जाते थें और सोचते थे की, गनीमत है की, उन्हों ने स्कूटर,बाईक या कार नहीं खरीदी, वर्ना उसका वह क्या करते?
हमारे `चिल्ड्रेन समाज` के सभी बच्चें, उनकी साइकिल चोरी होने की मन्नतें मानते थे । ऐसे में, जैसे हमारी भगवान ने सुन ली हो, एक दिन उनकी साइकिल सचमुच चोरी हो गई और चोरी की रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए, उनके और मेरे बड़े भाई के साथ मैं भी थाने गया था । मुझे आज भी याद है, उस वक़्त पुलिस थाने में एक बोर्ड पर साइकिल चोरों के ढेर सारे फोटो चिपकाए, देखकर मुझे बहुत हैरानी एवं आश्चर्य भी हुआ था..!!
आजकल साइकिल ग़रीबों की रोजीरोटी कमाने का एक मात्र साधन होकर रह गया है,चाहे वो चाकू छुरीयाँ तेज़ करनेवाला हो,या साबून-अगरबत्ती-दूध-अखबार बेचने वाला छोटा व्यापारी हो..!! अब तो बचपन में रोमांच जगाने वाले सर्कस भी विलुप्त होने के कगार पर है,वर्ना उसमें बड़ी लंबी-बौनी,ऊँची-नीची साइकिल चलाते जोकर-मसखरों को देखने का आनंद,बचपन में कुछ अलग ही होता था । और तो और,, अब न तो ड़ाकिये साइकिल पर आते हैं, ना ही पुलिस हवालदार..!! इन सब को, पेट्रोल से तेज़ दौड़ते-भागते, वाहन आज उपलब्ध होने के बावजूद सरकारी कामकाज मानो बहुत धीमा पड़ गया है?
सन-१९७२ की, निर्माता,निर्देशक,लेखक,अभिनेता मनोज कुमार और नंदा-जया भादुरी (बच्चन) की ब्लॉक बस्टर हीट फिल्म - `शोर` में अपने बेटे की खोइ हुई वाचा का इलाज कराने के लिए, कुछ रुपये जुटाने हेतु, मनोज कुमार अविरत,रात-दिन, सार्वजनिक तौर पर, साइकिल चलाने का बीड़ा उठाते हैं । (उस फिल्म का `एक प्यार का नग्मा है` गाना बहुत लोकप्रिय हुआ था ।) हमारे गाँव के मेले में भी ग़रीब साइकिलवीर अपना पेट पालने के लिए,ऐसे ही अपना हुनर दिखाते थे और कई दिनों तक साइकिल पर ही नहाना-धोना,खाना-पीना जैसी दैनिक क्रियाएं करते थे ।
जब फिल्मों की ही बात चली है तो, साल ५०-६० की फिल्मों में हीरोइन-हीरो को प्यार में डूबने से पहले, एक दूसरे के साथ अपनी-अपनी साइकिल टकराकर सब से पहले तक़रार करना अति आवश्यक होता था । झगड़ा ज्यादा होने पर, कई फिल्मों में तो हीरो या हीरोइन एक दूसरे की साइकिल को पंचर कर देते, या फिर टायर से हवा निकाल देते थे और बाद में उनको सताने के लिए अंटसंट कोई भी गीत गा लेते थे..!!
पंचर से मुझे याद आया, सच बताएगा? क्या आपको अपने बाईक-कार का पंचर करना, उसमें हवा भरना, उसका पहिया बदलना आता है? नहीं ना..!!
आपको अपने वाहन के साथ ऐसा कुछ ग़जब होने पर मेकैनिक को बुलाना पड़ता होगा, पर साइकिल के अपार महिमा के दिनों में, हर इतवार के दिन, हमारे बड़े भैया, साइकिल के करीब सारे पुर्जे खोलकर साफ-सफाई-ऑयलिंग-ग्रिसिंग, किया करते थे, पंचर भी खुद बनाते थे, घर में एक छोटा सा पंप भी होता था, जिससे साइकिल में रोज़ सुबह हवा भरते थे ।
पहले साइकिल एक दूसरे के साथ टकराने पर, ज्यादा से ज्यादा कुछ छोटी-मोटी चोटें और फैक्चर होने का भय रहता था । आजकल, ९०-१०० कि.मी. प्रति घंटे की रफ़्तार से, बाईक या कार का अकस्मात होने पर, जान गँवाने का भय सताता है ।
पहले साइकिल चलाना सादगी का और शाश्वत तंदुरस्ती का प्रतीक माना जाता था, जिसके विरुद्ध, आज के दिनों, कार चलाने वालों के घर में चोरी छिपे,एक ही जगह पर खड़ी रहने वाली और पेडल की संख्या गिनने वाली साइकिल के ज़रिए शारीरिक व्यायाम करने का चलन बढ़ रहा है । वैसे शारीरिक व्यायाम के उद्देश्य से ही सही, कोई अमीर इन्सान अगर कहीं साइकिल पर घूमता नज़र आ जाए तो, रुपये-पैसों से बर्बाद हो जाने की आशंका से, उसके बेटे-बेटी के विवाह के लिए, अच्छे रिश्ते आना भी बंद हो जाएं, इतना सारा आडंबर आजकल समाज में फैल गया है..!!
एक ही स्कूटर या बाईक पर `ट्रबल सवारी` द्वारा, सारे खानदान का बोज़ उठाए हुए, साहसिक `ट्रबल सवारीओं` की आवा-जाही देखना आम सी बात हो गई है । पर परिवार में तीन-चार साइकिल का होना जैसे सारे परिवार को शर्मसार करने वाली बात मानी जाती है?
सन-१९६० के दशक में, ऐसा नहीं था । स्कूटर और बाईक रास्ते पर बहुत कम ही दिखते थे, ऐसे में `डबल सवारी` का आनंद सिर्फ साइकिल के डंडे पर बैठ कर ही लिया जाता था ।
ज़रा कल्पना कीजिए, साइकिल के आगे, डंडे पर नयी नवल पत्नी/प्रेमिका को बिठा कर आप कहीं जा रहे हैं, आगे बैठी हुई पत्नी/प्रेमिका का `बारबार लगातार` मुलायम सम्पर्क आपके तन बदन में रोमांचक कंपन पैदा कर रहा है, फिर गेशु-ए-यार से, चंपा-चमेली के तेल की मंद-मंद नशीली ख़ुशबू आप की नासिका में प्रवेश कर, आपके हृदय में मानो सितार बजा रही है..!! हा..य, हा..य, हा..आ..य..!! क्या समाँ होता था..!! देखिए, झूठ मत बोलना..!! ऐसी कल्पना भर से,आप के मन में, अभी गुदगुदी शुरु हो रही है ना? तो फिर?
मैं तो सच्चे दिल से मानता हूँ, उस वक़्त सस्ती साइकिल पर बैठी पत्नी/प्रेमिका को जितना भरोसा अपने जानु प्रीतम पर था, आजकल उनको, महँगी कार में, पति/प्रीतम के बगल में बैठकर भी नहीं आता होगा..!! साइकिल का उपयोग कम होने की वजह से हमारे जीवन में से सारा रोमांच ही चला गया और इसीलिए शायद आजकल तलाक भी ज्यादा हो रहे हैं?
सन-१९७५ तक, साइकिल पर `डबल सवारी` घूमना क़ानूनन जुर्म माना जाता था,अतः ऐसे `डबल सवारी`करनेवाले सवार, दूर से ही किसी पुलिसवाले को देख लेते तो, साइकिल के डंडे पर बैठी पत्नी/प्रेमिका/मित्र कोई भी हो, उसे साइकिल से नीचे उतार कर, पुलिसवाले को पार (क्रॉस) करके, फिर से उन्हें साइकिल के डंडे पर या पीछे कैरियर पर बिठाना पड़ता था । इसी प्रकार, रात को, साइकिल के पीछे लाल रंग का रिफ्लेक्टर और साइकिल के आगे डायनेमो बत्ती (इलेक्ट्रिक लाईट)या मिट्टी के तेल का लैंप लगाकर ही, साइकिल चलाने का कानून भी अमल में था ।
साइकिल के डंडे पर किसी को बिठा कार घुमाने का सुख सिर्फ पुरुषों के भाग्य में लिखा होगा, इसीलिए साड़ी धारण करनेवाली महिलाओं के लिए, कंपनी वालों ने, आगे बगैर डंडे की, लॅडिज़ साइकिल का निर्माण करना शुरु कर दिया..!! अब महिलाएं, लैडिज़ साइकिल चला तो लेती थीं,मगर उसे स्टैंड करने के लिए, अक्सर पुरुषों की सहायता लेनी पड़ती थी, अब ऐसे में कोई पुरुष को उस साइकिलवाली महिला के आगे-पीछे बैठने की चाहत होती होगी पर, बेचारा क्या करें..!! वहाँ आगे डंडा नहीं और पीछे कैरियर पर बैठने में पक्का अहंकार आड़े आता होगा..!!
हमारे गाँव में एक बंदे ने दूसरी जाति में प्रेम विवाह किया और फिर साइकिल के डंडे पर अपनी पत्नी को बिठाकर रोज़ हमारे घर के सामने से बड़े फख़्र के साथ, निकलने लगे । ये सब देखकर कहीं हमारे संस्कार भी बदल न जाए,ऐसा सोचकर, उसी वक़्त मेरे पिताजी हमें अक्सर घर में बुला लेते थे । बाद में उस बंदे का बेटा जब दो साल का हुआ, तब उसे भी साइकिल के हेन्डल पर लोहे के जालीदार पिंजरें में बिठाकर, साइकिल पर ढाई (२=१/२) सवारी के साथ, उनको आते-जाते मैं ने अक्सर देखा था । ये सब देखकर ईर्ष्या के मारे, उसी वक़्त मैंने भी मन ही मन तय कर लिया था की, मैं भी एक दिन मेरी पत्नी और बच्चों को मेरी साइकल पर बिठाकर इस बंदे के सामने से गुजरुंगा और वह देखता रह जाएगा.!! मगर अब तो मैं चाहूँ तब भी, मेरी पत्नी और बच्चों को, मेरी कार के बॉनेट (ढक्कन) पर बैठने का सुझाव नहीं दे सकता..!! कहेंगे, बुढ्ढा सठिया गया है?
आप को पता है? आज देश में बाईक-कार के बढते चलन के बावजूद हमारे देश के लिए, यह गर्व की बात है की, भारत आज भी साइकिल उत्पादन में, चीन के बाद सारे विश्व में, दूसरे स्थान पर है । हमारे देश की कार कंपनियाँ, जैसे, मारुति,टाटा,हुन्डाई,महिंद्रा, जनरल मोटर्स, टॉयोटा, हॉन्डा, फॉर्ड, फीयेट, स्कॉडा, हिंदुस्तान मोटर्स, फॉर्स मोटर्स, मर्सिडिझ बेंन्ज़, बी.एम.डबल्यू,वी.डबल्यू, औडी, आई.सी.एम.एल.(रिनो), निस्सान वगैरह के मुकाबले में, देश में साइकिल का उत्पादन दश गुना ज्यादा होता है ।
हमारे देश में प्रति वर्ष, १२०,०००००० (12 million bicycles) का उत्पादन होता है । साइकिल निर्माण की कंपनियाँ, हीरो, एटलस, ए-वन इत्यादि ब्रैंड की साइकिल कंपनीओं का सालाना टर्न ऑवर रुपया-१५० करोड़ का है ।
कुदरती ऑयल के अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बढ़ते दाम की वजह से, देश में आम आदमी और मध्यम वर्ग को, महँगाई की मार जिस तरह सता रही है, यह ध्यान में रखते हुए, लोग बाईक-कार को, बीच रास्ते में ही त्याग कर, एक दिन फिर से साइकिल का हेन्डल पकड़ लें, ऐसा युग शायद नज़दीक ही आता दिख रहा है । निरंतर बदलती रहती, इस दुनिया में सबकुछ संभव है..!!
अगर साइकिल के दिन शान के साथ फिर से वापस आते हैं तो ऐसे में रास्ते के एक कोने में सड़ रही बंद बाईक-कार को साइकिल `फिल्म `शोर` का वही गीत गाकर सुनाएगी, "ज़िदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है?"
दोस्तों, मुझे पता है साइकिल का ये लेख ज्यादा लं...बा, हो गया है, पर क्या करें, साइकिल का महिमा सुनाना मुझे आवश्यक लगा, क्योंकि हम और हमारे परिवार वाले, बाईक-कार के अभ्यस्त हो जाने की वजह से अपने शरीर और पैसे दोनों की बर्बादी करने पर तूले हुए हैं?
बाय ध वॅ बॉस, क्या आप मेरी बात से सहमत हैं?
मार्कण्ड दवे । दिनांकः ०८-०४-२०११.
कुदरती ऑयल के अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में बढ़ते दाम की वजह से, देश में आम आदमी और मध्यम वर्ग को, महँगाई की मार जिस तरह सता रही है, यह ध्यान में रखते हुए, लोग बाईक-कार को, बीच रास्ते में ही त्याग कर, एक दिन फिर से साइकिल का हेन्डल पकड़ लें, ऐसा युग शायद नज़दीक ही आता दिख रहा है । निरंतर बदलती रहती, इस दुनिया में सबकुछ संभव है..!!
अगर साइकिल के दिन शान के साथ फिर से वापस आते हैं तो ऐसे में रास्ते के एक कोने में सड़ रही बंद बाईक-कार को साइकिल `फिल्म `शोर` का वही गीत गाकर सुनाएगी, "ज़िदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है?"
दोस्तों, मुझे पता है साइकिल का ये लेख ज्यादा लं...बा, हो गया है, पर क्या करें, साइकिल का महिमा सुनाना मुझे आवश्यक लगा, क्योंकि हम और हमारे परिवार वाले, बाईक-कार के अभ्यस्त हो जाने की वजह से अपने शरीर और पैसे दोनों की बर्बादी करने पर तूले हुए हैं?
बाय ध वॅ बॉस, क्या आप मेरी बात से सहमत हैं?
मार्कण्ड दवे । दिनांकः ०८-०४-२०११.
Rahul Singh ने कहा…
ReplyDeleteमानसिक कवायद, सहज पोस्ट बनकर निकली है.
sanu shukla says:
ReplyDelete९ अप्रैल २०११ ११:४४ पूर्वाह्न
vaah bahut accha
ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ says:
ReplyDelete९ अप्रैल २०११ ३:५७ अपराह्न
आपका अंदाजे बयां लाजवाब है। बधाई।
Amrita Tanmay says:
ReplyDelete१० अप्रैल २०११ २:४९ अपराह्न
चित्ताकर्षक लगी
किलर झपाटा says:
ReplyDelete११ अप्रैल २०११ १०:१६ पूर्वाह्न
यस सहमत हैं।
गजेन्द्र सिंह says:
ReplyDelete११ अप्रैल २०११ १:०९ अपराह्न
वाह जनाब वाह