Sunday, February 27, 2011

फ़िल्म - दस्तक - हम हैं मता -ए कूचा - ओ - बाज़ार की तरह ।

मता -ए कूचा - ओ - बाज़ार ।



(courtesy-Google images)
फ़िल्म - दस्तक - 

 हम हैं मता -ए कूचा - ओ - बाज़ार की तरह ।

फ़िल्मी गज़ल रसास्वाद- १.

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प्रिय दोस्तों,

हिन्दी फ़िल्मो के चाहने वालों में, कोई  गज़ल का अनुरागी न हो,  ऐसा मानना मुश्किल सा लगता है ।

फ़िल्मों में गज़ल की शुरुआत सर्व प्रथम वाक् फ़िल्म `आलमआरा` से ही हो चुकी थी । `आलमआरा` फ़िल्म में कई गज़ल और गज़लनुमा गीत पेश हुए थे।

हिन्दी फ़िल्मो में, हिन्दी के कई रचना कारों ने, गज़ल के प्रति अपना समर्पण भाव प्रदर्शित किया है । फीरभी  हिन्दी कवि यों से ज्यादा उर्दू शायरो का योगदान ज्यादा रहा है । जैसे, क़मर जलालाबादी, स्व.शकील बदायूँनी, स्व. राजा मेंहदी अली ख़ाँ, हसरत जय पुरी, साहिर लुधियानवीँ, मजरुह सुलतान पुरी, कैफ़ी आज़मी. राजेन्द्र क्रिश्न, नक्स लायलपुरी(असली नाम-जसवंतराय), और अनेक नामी-अनामी शायर ने अपना योगदान दिया है ।

वैसे तो, कई फिल्मों में प्राचीन शायर जैसे, गाल़िब, ज़ौक़, दाग़, जिगर, बहज़ाद, शमीम और अन्य कई शायर की गज़लों को भी उचित स्थान मिला है ।

मनुष्य के स्वभाव की सरलता, सौंदर्य, प्रेम माधुर्य, प्रार्थना, और कभी अमीरी -ग़रीबी , ज़िंदगी की कटू सच्चाई के ज़ख्मों को हूबहू पेश करके, दर्शकों के जख़्मी दिलों पर मरहम लगाने वाली गज़ल सब के दिलों पर राज करने लगी । सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक, संगीतकार, गायक-गायिका, हर एक ने गज़ल को बड़े प्यार से मानो गले लगा लिया ।

आज, बड़ी विनम्रता के साथ, गज़ल के मर्म को सरल भावार्थ में पेश करने की आपसे, मैं अनुमति चाहता हूँ । आशा है मेरा ये प्रयास आपको अवश्य अच्छा लगेगा ।

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फ़िल्मी गज़ल रसास्वाद- १.

फ़िल्म - दस्तक

" हम हैं मता -ए कूचा - ओ - बाज़ार की तरह ।"



शायर- मजरुह सुलतान पुरी

संगीतकार - मदनमोहनजी,

गायिका -लता मंगेशकर.

ताल- दादरा

"हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह!
उठती हैं हर निगाह ख़रीदार की तरह!

वो तो कहीं हैं और,मगर दिल के आसपास!
गिरती हैं कोई शैं निगाहें-यार की तरह!

मजरुह लिख रहे हैं,वो अहेले वफ़ा का नाम!
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह!"

शब्दार्थ-

१.मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार = तंग गलियों में सजाया हुआ बिकाऊ सामान.
२.शैं =चीज़
३.निगाहें-यार = आशिक की नज़र.
४.मजरुह = ज़ख्म (शायर का तखल्लुस)
५.अहेले वफ़ा = वफ़ा की तसल्ली.

१.
हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह!
उठती हैं हर निगाह ख़रीदार की तरह!

यह गज़ल ख़ुद एक दर्द भरी कहानी बयान करती है । हमारे जन्म से मृत्यु पर्यंत, रिश्तेदार, मित्रगण और हम जहाँ साँस ले रहे हैं, वह सारी क़ायनात की स्वार्थ से भरी, तंग गलियोँ के भीतर कोई भी सरल ,निर्दोष इन्सान को एक बाज़ारु चीज़  माना जाता है । जहाँ मानव संबंध के अनेक रुप धर कर उसकी बोली लगाकर ख़रीदने वाले ग्राहक तैयार बैठे होते हैं ।

२.
वो तो कहीं हैं और,मगर दिल के आसपास!
गिरती हैं कोई शैं निगाहें-यार की तरह!

संबंध की दुहाई देनेवाले ऐसे मतलबी ग्राहक को हम सरल स्वभाव के इन्सान कभी पहचान नहीं सकते । अपना हित साधने के लिए, कीसी मजबूर की मजबूरी की बोली लगाने वाले ऐसे बद़नियत लोगों के छिपे वार से कई दिल घायल हो जाते हैं ।

 ३.
मजरुह लिख रहे हैं,वो अहेले वफ़ा का नाम!
हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह!

हमेशा वफ़ा का नक़ाब ओढ़कर, हमारे दिल को छलनी-छलनी करनेवाले ऐसे लोग अपनी बदनियती को अक्सर सही ठहराने की कोशिश करते हैं और हमारे जख़्मी दिल को ही कसूर वार ठहराते है ।

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प्रिय दोस्तों, यह गज़ल का ऑडियो `डाउनलोड` के लिए प्रस्तुत  है ।

डाउनलोड लिंक-

http://www.4shared.com/file/145417252/be378716/HUM_HAI_MATA-E_KUCHA-O.html

आप जैसे विद्वान पाठकों का अभिप्राय मेरे लिए बहुमूल्य हैं । मेरे यह प्रयास के बारे आपसे प्रोत्साहन की उम्मीद अवश्य है । धन्यवाद ।

मार्कण्ड दवे. दिनांकः- २७ फरवरी २०११.

1 comment:

  1. वाह! यह ग़ज़ल इतनी खूबसूरत पहले कभी सुनायी नहीं दी..हर वाद्य बहुत साफ़ सुनायी दे रहा है..क्या आप ने रीमिक्स किया है???बहुत ही अच्छी रिकॉर्डिंग है ..
    आभार.

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